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सरसों की उपज में गिरावट बनी चिंता की वजह, आत्मनिर्भरता के लिए खेती का दायरा बढ़ाने की जरूरत

नई दिल्ली: भारत में सरसों को रबी सीजन की एक प्रमुख तिलहनी फसल माना जाता है, जो खाद्य तेलों की घरेलू जरूरत को पूरा करने में बड़ी भूमिका निभाती है। विशेष रूप से राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा और पंजाब जैसे राज्यों में इसकी खेती बड़े पैमाने पर होती है। देशी तिलहन सरसों न सिर्फ किसानों के लिए आर्थिक लाभ का जरिया है, बल्कि यह भारत को खाद्य तेलों के मामले में आत्मनिर्भर बना सकती है। विशेषज्ञों का मानना है कि अगर देश को तेल आयात पर निर्भरता कम करनी है तो सरसों की खेती का रकबा बढ़ाने, वैज्ञानिक तरीकों को अपनाने और किसानों को तय कीमत देने की जरूरत है।

हाल ही में जारी सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 2024-25 के फसल वर्ष में देश में सरसों और रेपसीड की खेती 86.29 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में की गई, जिसमें औसतन 1,461 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की उपज के साथ कुल 126.06 लाख टन उत्पादन दर्ज किया गया। यह पिछले वर्ष की तुलना में कम है। 2023-24 में सरसों का रकबा 91.83 लाख हेक्टेयर और कुल उत्पादन 132.59 लाख टन था। उत्पादन में इस गिरावट को लेकर उद्योग जगत भी चिंतित है। विशेषज्ञों की मानें तो सरसों तेल देश की खाद्य तेल आपूर्ति में स्थायित्व लाने का सबसे सशक्त माध्यम है। खेती के दायरे के साथ-साथ प्रति हेक्टेयर उपज में वैज्ञानिक सुधार कर इस फसल का उत्पादन कई गुना बढ़ाया जा सकता है।

हालांकि किसानों को इस लक्ष्य तक पहुंचने में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। मौसम की अनिश्चितता, कीटों का बढ़ता प्रकोप और सिंचाई की समस्या ने सरसों की खेती को कठिन बना दिया है। ऐसे में सवाल उठता है कि उत्पादन कैसे बढ़ाया जाए। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि इसका सबसे अहम उत्तर बेहतर बीजों के इस्तेमाल में छिपा है। परंपरागत या कमजोर किस्म के बीजों से न केवल उपज घटती है, बल्कि फसल रोगों की चपेट में जल्दी आ जाती है। इसके विपरीत उच्च गुणवत्ता वाले वैज्ञानिक रूप से विकसित बीज प्रतिकूल परिस्थितियों में भी बेहतर उत्पादन देते हैं। देश के कृषि अनुसंधान संस्थानों ने सरसों की कई ऐसी किस्में विकसित की हैं जो न केवल अधिक उपज देती हैं, बल्कि रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता भी रखती हैं। इन किस्मों में तेल की मात्रा अधिक होती है और इनकी लाइफ साइकिल भी अपेक्षाकृत कम होती है, जिससे कम समय में उत्पादन संभव होता है। किसानों को ऐसी उन्नत किस्मों को अपनाने की सलाह दी जा रही है ताकि वे कम संसाधनों में भी अच्छी पैदावार ले सकें और बाजार में बेहतर कीमत हासिल कर सकें।

बदलते कृषि परिदृश्य में यह भी जरूरी हो गया है कि सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे। इससे उन्हें सरसों की खेती में जोखिम कम लगेगा और वे बड़े पैमाने पर इस फसल की ओर आकर्षित होंगे। केवल तकनीकी मदद ही नहीं, बल्कि नीतिगत स्थिरता और बाजार सुरक्षा भी किसानों के लिए सरसों को एक भरोसेमंद फसल बनाने में अहम भूमिका निभा सकती है। भारत अगर खाद्य तेल के मामले में आत्मनिर्भर बनना चाहता है तो उसे सरसों की खेती को वैज्ञानिक, व्यावसायिक और स्थायी रूप देना होगा। इसके लिए सरकारी सहयोग, उन्नत बीज, प्रशिक्षण और सही कीमत की गारंटी जैसे उपाय जरूरी हैं। तभी सरसों न केवल खेतों में लहलहाएगी, बल्कि देश को आत्मनिर्भरता की राह पर भी मजबूती से आगे बढ़ाएगी।

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